मंगलवार, 29 नवंबर 2011

(लघु कथा) मौनी बाबा की जय

 
क किसी काम का आदमी नहीं था. ऐसा उसे घर से लेकर बाहर तक, गांव भर के सभी लोगों ने बताया था. उसे भी पक्का विश्वास हो गया था कि इतने लोग ग़लत नहीं हो सकते. उसने मान लिया था कि वह किसी काम का न था.

एक दिन वह सोचने लगा कि जब वह किसी काम का आदमी नहीं है तो उसे क्या करना  चाहिये. उसे कुछ समझ नहीं आया. उसने सुना था कि यदि आलथी-पालथी मारकर, दोनों हाथ घुटनों पर रखकर, आंखें बंद करके बैठ कुछ सोचा जाए तो अच्छा रहता है. उसके बाल-दाढ़ी बढ़े रहते थे. वह यूं ही रहता था. पर, आज उसने कपड़े धोकर सूखने डाल रखे थे इसलिए एक गमछा टांग वह टहल लिया. यहां वहां आसपास कुछ शोर सा था. सो, वह ज़रा दूर अकेले में एक पेड़ के नीचे ठीक इसी मुद्रा में सोचने के लिए जा बैठा. बैठे-बैठे उसे नींद आ गई पर चांस की बात कि वह इधर-उधर लुढ़का नहीं. पता नहीं वह कब तक सोता रहा.

जब उसकी आंख खुली तो उसने देखा कि बहुत से भक्त लोग कुछ कुछ माल-मत्ता उसके आगे रक्खे बैठे हैं. उसकी आंख खुलते ही उन्होंने नारे लगाए - "मौनी बाबा की जय, मौनी बाबा की जय." तब से उसने सोचने के साथ-साथ बोलना भी छोड़ दिया और गांव बदल लिया.
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